Lord Shiva and his nineteen avatars : All you need to know

Vrishabh Avatar of Lord Shiva -

धर्म की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने अनेकों अवतार लिए, इसी के साथ भगवान शिव ने भी धर्म की रक्षा में भाग लेते हुए कई अवतार लिए. धर्म ग्रंथो में उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव के 19वें अवतार वृषभ अवतार है, जो देवताओं की रक्षा करने के लिए जन्में थे.. जहाँ भगवान शिव ने कई अवतार दानवों का विनाश करने के लिए लिये थे वही वृषभ अवतार, विष्णु पुत्रों का संहार करने के लिए लिया था. आइए जानते है आखिर क्यों भगवान शिव को विष्णु पुत्रों का संहार करने की जरुरत पड़ी।

 

शिवजी के वृषभ अवतार की पौराणिक कथा

समुद्र मंथन के समय जब अमृत कलश उत्पन्न हुआ तो उसे दैत्यों की नजर से बचाने के लिए श्री हरि विष्णु ने अपनी माया से बहुत सारी अप्सराओं की उत्पत्ति की. दैत्य अप्सराओं को देखते ही उन पर मोहित हो गए और उन्हें जबरन उठाकर पाताल लोक ले गए, और वहां बंधी बना कर अमृत कलश को पाने के लिए वापिस आए तो समस्त देव अमृत का सेवन कर चुके थे।

 

जब दैत्यों को इस घटना का पता चला तो उन्होंने पुन: देवताओं पर युद्ध किया, लेकिन अमृत पीने से देवता अजर-अमर हो चुके थे, जिस कारण दैत्यों को हार का सामना करना पड़ा। दैत्यों ने स्वयं को सुरक्षित करने के लिए वह पाताल की ओर भागने लगे। दैत्यों के संहार के लिए हुए श्री हरि विष्णु उनके पीछे-पीछे पाताल लोक जा पहुंचे और वहां समस्त दैत्यों का विनाश कर दिया।

 

दैत्यों का नाश होते ही अप्सराएं मुक्त हो गई, जब उन्होंने मनमोहिनी मूर्त वाले श्री हरि विष्णु को देखा तो वे उन पर मोहित हो गई और उन्होंने भगवान शिव से श्री हरि विष्णु को उनका स्वामी बन जाने का वरदान मांगा। अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव सदैव तत्पर रहते हैं, उन्होंने अपनी माया से श्री हरि विष्णु को अपने सभी धर्मों व कर्तव्यों को भूल अप्सराओं के साथ पाताल लोक में रहने के लिए कहा। श्री हरि विष्णु पाताल लोक में निवास करने लगे। उन्हें अप्सराओं से कुछ पुत्रों की प्राप्ति भी हुई लेकिन वह पुत्र राक्षसी प्रवृति के थे। उन्होनें अपनी क्रूरता से तीनों लोकों में कोहराम मचा दिया। उनके अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के समक्ष गए व उनसे श्री हरि विष्णु के पुत्रों का संहार करने की प्रार्थना की।

 

देवताओं को विष्णु पुत्रों के आतंक से मुक्त करवाने के लिए भगवान शिव एक बैल यानि कि ‘वृषभ’ के रूप में पाताल लोक पहुंचे और वहां जाकर भगवान विष्णु के सभी पुत्रों का संहार कर डाला, ये देख श्री हरि विष्णु क्रोधित हो उठे और भगवान शिव रूपी वृषभ पर आक्रमण कर दिया लेकिन उनके सभी वार निष्फल हो गए।

 

मान्यता है कि शिव व विष्णु, दिव्य रूप है, इसलिए बहुत समय तक युद्ध चलने के बाद भी दोनों में से किसी को भी न तो हानि हुई और न ही कोई लाभ। अंत में जिन अप्सराओं ने श्री हरि विष्णु को अपने वरदान में बांध रखा था उन्होंने उन्हें मुक्त कर दिया.. इसके बाद जब श्री हरि विष्णु को इस घटना का बोध हुआ तो उन्होंने भगवान शिव की स्तुति की।

 

भगवान शिव के कहने पर श्री हरि विष्णु विष्णुलोक लौट गए.. भगवान विष्णु पाताल लोक से जाने से पहले अपना सुदर्शन चक्र वहीं छोड़ गए, जिसके बाद विष्णुलोक में भगवान विष्णु ने शिव की स्तुति कर उनके एक और सुदर्शन चक्र की प्राप्ति की.

Vastu Tips For Temple

Vastu Tips For Temple -

हिंदू धर्म में पूजा-पाठ का विशेष महत्व होता है. लगभग हर घर में रोजाना सुबह और शाम के समय में पूजा की जाती है. इससे घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है, लेकिन कई बार रोजाना पूजा-पाठ करने के बावजूद भी घर में अशांति रहती है और शुभ फल की प्राप्ति भी नहीं होती. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं. वास्तु के अनुसार, अधिकतर लोग पूजा-पाठ करते समय कई तरह की गलतियां करते हैं.

 

वास्तु के अनुसार

वास्तु शास्त्र में कई ऐसी चीजों के बारे में बताया गया है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन सफल हो सकता है. वास्तु में कुछ गलतियों का भी जिक्र किया गया है जिसे करने से व्यक्ति के जीवन में मुसीबतें बढ़ सकती हैं. वास्तु में पूजा-पाठ के कुछ नियमों के बारे में भी बताया गया है. बहुत से लोग पूजा-पाठ के दौरान जाने-अंजाने में कई गलतियां कर देते हैं जिससे देवी-देवता आपसे नाराज भी हो सकते हैं. ये गलतियां आपके व्यक्तिगत जीवन और घर की सुख-शांति पर असर डालती हैं. ऐसे में आज हम आपको मंदिर और पूजा-पाठ से जुड़ी ऐसी गलतियों के बारे में बताने जा रहे हैं जो अशांति और सुख-समृद्धि की हानि का कारण बन सकती हैं. आइए जानते हैं उनके बारे में- 

 

जमीन पर ना रखें शिवलिंग

शिवलिंग भगवान भोलेनाथ का प्रतीक है. माना जाता है कि भोलेनाथ में इस पूरे ब्रह्मांड की ऊर्जा समाहित है. ऐसे में शिवलिंग को भूलकर भी जमीन पर नहीं रखना चाहिए. ऐसा करने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है. शिवलिंग को हमेशा पूजास्थल में साफ जगह पर रखना चाहिए. 

 

यहां ना रखें दीया

पूजा करते समय दीया जरूर जलाया जाता है. ऐसा करना काफी शुभ माना जाता है. ऐसे में दीपक को कभी भी जमीन पर नहीं रखना चाहिए. दीपक को हमेशा थाली में किसी स्टैंड पर रखना चाहिए. 

 

शालिग्राम को ना रखें जमीन पर

हिंदू धर्म में शालिग्राम को बेहद पूजनीय माना गया है. शालिग्राम का प्रयोग भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है. शिव भक्त पूजा करने के लिए शिवलिंग के रूप में शालिग्राम का इस्तेमाल करते हैं. भगवान विष्णु की पूजा में भी शालिग्राम का खास महत्व होता है. जिस घर में भी शालिग्राम स्थापित किया जाता है वहां सुख और समृद्धि अपने आप ही आने लगती है, लेकिन इसे जमीन पर रखने से आपको नुकसान उठाना पड़ सकता है. कभी भी शालिग्राम को जमीन पर नहीं रखना चाहिए. 

 

मूर्ति को जमीन पर ना रखें

मंदिर की साफ-सफाई करते समय अधिकतर लोग मूर्ति समेत सभी चीजों को जमीन पर रख देते हैं फिर सफाई करते हैं. आपको बता दें कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए. मंदिर की सफाई करते समय मूर्ति को कभी भी जमीन पर नहीं रखना चाहिए. ऐसा करने से भगवान का अपमान होता है और आपके घर की शांति भंग हो सकती हैं. मंदिर की साफ-सफाई करते समय मूर्तियों को हमेशा किसी कपड़े या थाली में रखें. 

 

शंख का पूजा-पाठ में कितना महत्व

हिंदू धर्म में शंख का विशेष महत्व होता है. धार्मिक अवसरों पर शंख बजाना काफी शुभ माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि जिस घर के पूजा स्थल में शंख रहता है और प्रतिदिन बजाया जाता है, वहां पर मां लक्ष्मी का वास बना रहता है. साथ ही यह भी माना जाता है कि शंख की मंगल ध्वनि से नकारात्मक उर्जा दूर हो जाती है. माता लक्ष्मी की पूजा शंख के बिना अधूरी मानी जाती है. ऐसे में इसे जमीन पर रखने से नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और धन की हानि भी होती है. 

 

सोने के गहने पर रखें सावधानी

आपको बता दें कि सोने के गहने मां लक्ष्मी का रूप माने जाते हैं जो भगवान विष्णु को अति प्रिय होते हैं. ऐसे में सोने के गहनों को भूलकर भी जमीन पर नहीं रखना चाहिए इससे देवी-देवताओं का अपमान माना जाता है. साथ ही पैरों में भी कभी सोने के आभूषण नहीं पहनने चाहिए. यह शुभ नहीं माना जाता है. सोने के गहनों को हमेशा किसी कपड़े में लपेटकर रखना चाहिए.

7 Unsolved and Hidden Mysteries of Lord Shiva

Hidden Mysteries of Lord Shiva -

 

  1. शिव की कितनी पत्नियां थी?

भगवान शंकर का विवाह सर्वप्रथम प्रजापति दक्ष की पुत्री सती से हुआ फिर जब वे यज्ञकुंड में कूदकर भस्म हो गई, तब उन्होनें दूसरा जन्म लिया और हिमवान की पुत्री पार्वती कहलाई. कहते है कि गंगा, काली और उमा भी शिव की पत्नियां थीं, लेकिन वास्तव में शिव के साथ पार्वती का ही नाम लिया जाता है.

 

  1. कितने हैं शिव के पुत्र?

भगवान शिव ने पार्वती से विवाह करने के बाद कार्तिकेय नाम का एक पुत्र प्राप्त किया. भगवान गणेश तो माता पार्वती के उबटन से बने थे. सुकेश नामक एक अनाथ बालक को शिव-पार्वती ने पाला था. जलंधर शिव के तेज से उत्पन्न हुआ था. अय्यप्पा शिव और मोहिनी के संयोग से जन्मे थे. भूमा उनके ललाट के पसीने की बूंद से जन्मे थे. अंधक और खुजा नामक 2 पुत्र और थे जिसके बारे में ज्यादा उल्लेख नहीं मिलता है. शिव पुराण में भगवान शिव के परिवार का पूर्ण रुप से और विस्तार में उल्लेख मिलता है.

 

  1. शिव के कितने शिष्य?

शिव के प्रमुख 7 शिष्य है जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है. इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई. शिव ने ही गुरू और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी. शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्त्राक्ष, महेंद्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे. शिव के शिष्यों में वशिष्ठ और अगस्त्य मुनि का नाम भी लिया जाता है.

 

  1. क्या शिव ही बुद्ध थे?

बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था. उन्होनें पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों को उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर.

 

  1. क्या शिव और शंकर एक ही हैं?

कई पुराणों के अनुसार भगवान शंकर को शिव इसलिए कहते हैं कि वे निराकार शिव के समान हैं. निराकार शिव को शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है. कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के 2 नाम बताते हैं. असल में दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं. शंकर को हमेशा तपस्वी रुप में दिखाया जाता है, कई जगह तो शंकर तो शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है. अत: शिव और शंकर 2 अलग-अलग सत्ताएं है. माना जाता है कि महेश यानि की नंदी और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं. रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं. इस तरह से शिव के अलग अलग अस्तित्व बताएं जाते है.

 

  1. हर काल में शिव

भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं, वे सतयुग में समुद्र मंथन के समय भी थे और त्रेता के राम के समय भी. द्वापर युग की महाभारत काल में भी शिव थे और कलिकाल में विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है. भविष्य पुराण के अनुसार राजा हर्षवर्धन को भगवान शिव ने मरुभूमि पर दर्शन दिए थे. कलियुग में भगवान शिव के दर्शन का उल्लेख भविष्य पुराण में बताया गया है, लेकिन कहीं भी इसका उल्लेख किया नहीं जाता हैं.

 

  1. वनवासी और आदिवासियों के देवता?

भारत के असुर, दानव, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, आदिवासी और सभी वनवासियों के आराध्य देव शिव ही हैं, कहा जाता है कि शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है. सभी दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपात, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव धर्म से जुड़े हुए हैं. चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की ही परंपरा से ही माने जाते है।

Apart from Shri Ram, Ravana was defeated by these too?

Shri Ram And Ravan Story -

अधिकतर लोग यही जानते हैं कि रावण सिर्फ श्रीराम से ही हारा था, लेकिन ये सच नहीं है। रावण श्रीराम के अलावा शिवजी, राजा बलि, बालि और सहस्त्रबाहु से भी पराजित हो चुका था, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी प्राप्त है. श्रीराम रावण की मृत्यु का कारण थे, इसलिए इन लोगों ने केवल रावण को पराजित किया था, वध नहीं किया था। इस कहानी के द्वारा जानिए इन चारों से रावण कब और कैसे हारा था।

 

बालि से रावण की हार

एक बार रावण, बालि से युद्ध करने के लिए पहुंचा। बालि उस समय यज्ञ कर रहा था। रावण बार-बार बालि को ललकार रहा था, जिससे बालि के यज्ञ में बाधा उत्पन्न हो रही थी. जब रावण नहीं माना तो बालि ने उसे अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी. बालि बहुत शक्तिशाली था और इतनी तेज गति से चलता था कि रोज सुबह-सुबह ही चारों समुद्रों की परिक्रमा कर लेता था. इस प्रकार परिक्रमा करने के बाद सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता था. जब तक बालि ने परिक्रमा की और सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया तब तक रावण को अपने बाजू में दबाकर ही रखा था. रावण ने बहुत प्रयास किया, लेकिन वह बालि की गिरफ्त से आजाद नहीं हो पाया. जब बालि का यज्ञ पूर्ण रूप से सफल हुआ तब बालि ने रावण को मुक्त किया. रावण ने बालि से क्षमा मांग कर, गलती को स्वीकारा और वहां से चला गया.

 

सहस्त्रबाहु अर्जुन से रावण की हार

सहस्त्रबाहु अर्जुन के एक हजार हाथ थे और इसी वजह से उसका नाम सहस्त्रबाहु पड़ा था. जब रावण सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंचा तो सहस्त्रबाहु ने अपने हजार हाथों से नर्मदा नदी के बहाव को रोक दिया था. सहस्त्रबाहु ने नर्मदा का पानी इकट्ठा किया और पानी छोड़ दिया, जिससे रावण अपनी पूरी सेना के साथ ही नर्मदा में बह गया था. इस पराजय के बाद एक बार फिर रावण सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंच गया था, तब सहस्त्रबाहु ने उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था. काफी प्रयास के बाद भी रावण सहस्त्रबाहु से जीत नहीं पाया और अपनी हार स्वीकार कर, क्षमा मांग कर जेल से मुक्त हुआ.

 

राजा बलि के महल में रावण की हार

दैत्यराज बलि पाताल लोक के राजा थे. एक बार रावण राजा बलि से युद्ध करने के लिए पाताल लोक में उनके महल तक पहुंच गया था. वहां पहुंचकर रावण ने बलि को युद्ध के लिए ललकारा, उस समय बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही रावण को पकड़कर घोड़ों के साथ अस्तबल में बांध दिया था. इस प्रकार राजा बलि के महल में रावण की हार हुई.

 

शिवजी से रावण की हार

रावण बहुत शक्तिशाली था और उसे अपनी शक्ति पर बहुत ही घमंड भी था. रावण इस घमंड के नशे में शिवजी को हराने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंच गया था. रावण ने शिवजी को युद्ध के लिए ललकारा, लेकिन महादेव तो ध्यान में लीन थे. रावण कैलाश पर्वत को उठाने लगा. तब शिवजी ने पैर के अंगूठे से ही कैलाश का भार बढ़ा दिया, इस भार को रावण उठा नहीं सका और उसका हाथ पर्वत के नीचे दब गया. बहुत प्रयत्न के बाद भी रावण अपना हाथ वहां से नहीं निकाल सका. तब रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उसी समय शिव तांडव स्रोत रच दिया. शिवजी इस स्रोत से बहुत प्रसन्न हो गए और उसने रावण को मुक्त कर दिया. मुक्त होने के पश्चात रावण ने शिवजी को अपना गुरु बना लिया.

Legend of Lord Shani – Story behind the most feared God

शनिदेव जी की कथा –

शनिदेव साक्षात रुद्र हैं। शनिदेव का शरीर क्रांति इन्द्रनील मणि के समान है। यदि बात करें शनिदेव के स्वरूप की तो, भगवान शनिदेव के शीश पर स्वर्ण मुकूट, गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग के वस्त्र सुशोभित हैं। शनिदेव की सवारी गिद्द को कहा जाता है। भगवान शनिदेव हाथों में धनुष-बाण, त्रिशुल और वरमुद्रा धारण करते है। भगवान शनिदेव सूर्यदेव और छाया के पुत्र हैं। वे क्रूर ग्रह माने जाते है। भगवान शिव ने शनिदेव को नवग्रहों में न्यायधीश का कार्य सौंपा है। किंतु वास्तविकता में भगवान शनिदेव जितने भयावह दिखते है या जितना भयावह वर्णन उनका लिखित में मिलता है, वे वास्तव में खुद इनके सामने भयभीत होते है, कौन है वो 5 देव चलिए जानते है।

 

  1. तिल से प्रसन्न होते है शनिदेव

 

पौराणिक कथाओं के अनुसार शनिदेव भगवान सूर्य और उनकी दूसरी पत्नी छाया के पुत्र हैं। बताया जाता है कि एक बार गुस्से में सूर्यदेव ने अपने ही पुत्र शनिदेव को श्राप देकर उनका घर भस्म कर दिया था, जिसके बाद शनिदेव अपने पिता भगवान सूर्य नारायण से डरते है। भगवान सूर्य को मनाने के लिए शनिदेव ने उनकी तिल से पूजा की, जिसके बाद सूर्य देव अपने पुत्र से प्रसन्न हुए। इस कार्य के बाद कहते है कि जो कोई भी भगवान सूर्य और शनिदेव की तिल से पूजा करता है, भगवान की कृपा उसपर सदैव रहती है।

 

  1. हनुमान जी से डरते है शनिदेव

 

एक कथा के अनुसार जब शनिदेव खुद अत्यधिक क्रोधिक होकर आमजन को नुकसान पहुंचा रहे थे, तो ये देखकर हनुमान जी को क्रोध आया और उन्होनें भगवान शनिदेव से युद्ध किया। पवनपुत्र हनुमान खुद इतने बलशाली है कि उनके आगे किसी की नहीं चलती। शनिदेव को सही मार्ग दिखाने के लिए उन्होनें युद्ध में उनको पराजित कर दिया, जिसके बाद शनिदेव ने हनुमान जी से क्षमा मांगी और क्रोध में गलत निर्णय ना लेने का वचन दिया। इसके बाद से कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति पर शनिदोष है तो वे नियमित रूप से हनुमान जी की पूजा करें, जिस कारण शनिदेव की ग्रहदशा का प्रभाव समाप्त हो जाता है।

 

  1. श्रीकृष्ण से डरते है शनिदेव

 

कहते है जब भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, तब उनके दर्शन करने के लिए शनिदेव धरती पर अपना भेस बदलकर आए थे, किंतु उनकी आंखें अत्यंत लाल और चेहरा डराने वाला था, जिस कारण गोकुल के वासियों ने उनके श्रीकृष्ण के दर्शन करने से मना कर दिया। शनिदेव श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त माने जाते है। जब उनके दर्शन नहीं हुए तो उन्होनें अपने आप को कोकिला वन में बंद कर श्रीकृष्ण से मिलने के लिए तपस्या का प्रण लिया। अनेकों वर्षों को पश्चात जब उनकी तपस्या से श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए तो शनिदेव को कोकिला वन में दर्शन दिए। तब से शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों पर कृपा करते है।

 

  1. पीपल से भय खाते हैं शनिदेव

 

पौराणिक कथाओं की मानें तो शनिदेव पीपल से भी डरते है, इसलिए शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाने से और पिप्लाद मुनि का नाम लेने से भगवान शनिदेव की वक्र दृष्टि शनिदेव पर नहीं पड़ती ।

 

  1. पत्नी से भयभीत होते है शनिदेव

 

कहते हैं कि शनिदेव खुद अपनी पत्नी से भय खाते हैं, इसलिए ज्योतिषशास्त्र में शनि की दशा में शनि पत्नी के नाम का मंत्र जपना से शनिदेव प्रसन्न होते है और इसे उपाय के रूप में भी माना जाता है। कथा के अनुसार एक समय, शनिदेव की पत्नी ऋतु स्नान करके शनि महाराज के पास आई, किंतु शनिदेव अपने ईष्ट देव श्रीकृष्ण के ध्यान में लीन थे और उन्होनें अपनी पत्नी की ओर नहीं देखा, जिस कारण क्रोधित होकर पत्नी ने श्राप दे दिया।

Tuesday Fast Story and its Significance (Mangalvar Vrat Katha)

Mangalvar Vrat Katha -

ऋषिनगर गांव में एक केशवदत्त नामक ब्राहम्ण अपनी पत्नी अंजली के साथ बहुत ही सुख से रहता था। गांव के सभी लोग केशवदत्त का बहुत सम्मान करते थे। केशवदत्त के पास खूब धन-संपत्ति थी, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी और इसी बात से दोनों पति-पत्नी दुखी थे। पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों ने हनुमान जी की पूजा करने का निर्णय लिया और उसे बखूबी निभाया भी।

ब्राह्मण हर मंगलवार को जंगल में हनुमान जी की पूजा करते थे और पत्नी घर में ही महावीर का व्रत रखा करती थी। दोनों शाम को बजरंग बली को भोग लगाकर व्रत खोलते थे। ब्राह्मण और उसकी पत्नी को हनुमान जी की पूजा करते-करते कई साल बीत गए, लेकिन उन्हें संतान नहीं हुई। एक समय आया जब ब्राह्मण निराश हो गया, लेकिन ब्राहम्ण ने बजरंग बली पर अपना विश्वास टूटने नहीं दिया। दोनों पति-पत्नी विधिवत व्रत रखते रहे।

एक मंगलवार ब्राहम्ण पत्नी अंजली हनुमान जी को भोग लगाना भूल गई और दिन ढलने के बाद खुद भी बिना भोजन किए सो गई। उस दिन ब्राह्मण की पत्नी ने प्रण लिया कि वो अब अगले मंगलवार को भोग लगाने के बाद ही अन्न का दाना खाएगी। बिना कुछ खाए-पिए किसी तरह से छह दिन निकले। मंगलवार का दिन आया और कमजोरी के चलते वो घर में ही बेहोश हो गई।

हनुमान जी, अंजली की निष्ठा देखकर प्रसन्न हो गए। बेहोशी की अवस्था में ही ब्राह्मणी अंजली को हनुमान जी ने दर्शन दिए और कहा, “पुत्री उठो, तुम हर मंगलवार पूरी निष्ठा के साथ मेरा व्रत करती हो। मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत खुश हूं। इस बात से खुश होकर मैं तुम्हारी मनोकामना पूरी करने का वरदान देता हूं। तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी, जो तुम्हारा खूब ध्यान रखेगा। इतना कहकर बजरंगबली वहां से अंतर्धान हो गए।

तभी अंजलि उठी और भोजन तैयार करके उसने सबसे पहले हनुमान जी को भोग लगाया। इसके बाद खुद भी भोजन किया। जब ब्राहम्ण केशवदत्त घर लौटा, तो ब्राह्मणी ने उसे पूरी बात बताई। पुत्र वरदान की बात सुनकर ब्राह्मण को यकीन नहीं हुआ और वह अपनी पत्नी पर शक करने लगा। उसने अपनी पत्नी को बोला, “तुम झूठ बोल रही हो, तुमने मेरे साथ धोखा किया है।

 

कुछ समय बाद ब्राह्मण के घर एक सुंदर पुत्र का जन्म हुआ। दोनों ने उसका नाम हनुमान जी के नाम पर मंगल प्रसाद रखा। ब्राह्मण को हमेशा यही लगता था कि उसकी पत्नी ने उसे झूठी कहानी सुनाई और उसके साथ छल किया है। यह सोचकर वो बच्चे को मारने की साजिश रचने लगा।

 

एक दिन मौका देखकर ब्राह्मण केशवदत्त कुएं पर नहाने गए और अपने पुत्र को भी साथ ले गया। मौका देखकर ब्राहम्ण केशवदत्त ने अपने ही पुत्र को कुएं में फेंक दिया। ब्राह्मण के घर लौटने पर जब पत्नी ने उससे पूछा, “मंगल कहा रह गया। वो भी तो आपके साथ गया था।” तो पत्नी के सवाल सुनकर ब्राह्मण पहले थोड़ा घबराया और फिर बोला कि मंगल उसके साथ नहीं था। तभी अचानक पीछे से मंगल मुस्कराते हुए सामने आया। यह देखकर ब्राह्मण दंग रह गया।

 

केशवदत्त को रात को यह सोच सोचकर नींद नहीं आई कि मंगल दास कैसे घर वापस आया। उसी रात बजरंगबली ने ब्राह्मण केशवदत्त को सपने में दर्शन दिए। हनुमान जी ने कहा, “मेरे प्रिय पुत्र! मंगल तुम दोनों का ही बेटा है। मैंने तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की भक्ति से खुश होकर तुम्हारी मनोकामना को पूरा किया था। अपने पुत्र मंगल दास को अपना लो और अपनी पवित्र पत्नी पर शक करना छोड़ दो।” सुबह उठकर ब्राह्मण ने सबसे पहले अपने बेटे को गले लगाया। फिर अपनी पत्नी से माफी मांगी। उसके बाद ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को बताया कि वो किस तरह उसपर शक किया करता था और मंगल दास को अपना पुत्र नहीं मानता था। ब्राह्मण की पत्नी ने उसे माफ कर दिया और तीनों साथ में खुशी-खुशी रहने लगे।

Secret Story About Bhagwan Rama And Hanuman

Hanuman Katha -

हनुमान जी को भगवान राम का सबसे प्रिय भक्त माना जाता है. हनुमान जी भगवान राम से बहुत प्रेम करते है. जब श्री राम अयोध्या के राजा बने तब हनुमान जी दिन रात उनकी सेवा में लगे रहते थे. एक दिन की बात है, श्री राम जी के दरबार में एक सभा चल रही थी. उस सभा में सभी वरिष्ठ गुरु और देवतागण मौजूद थे. चर्चा का विषय था कि राम ज्यादा शक्तिशाली हैं या राम का नाम. सभा में जितने लोग मौजूद थे उन्होनें राम को अधिक शक्तिशाली बताया और नारद मुनि का कहना था कि राम नाम में ज्यादा ताकत है. नारद मुनि की बात कोई सुन नहीं रहा था लेकिन हनुमान जी इस चर्चा के दौरान चुपचाप बैठे हुए सब सुन रहे थे. उन्होनें किसी की बात में हस्तक्षेप नहीं किया.

 

जब सभा खत्म हुई, तो नारद मुनि ने हनुमान जी से कहा कि ऋषि विश्वामित्र को छोड़कर वो सब ऋषि मुनियों को नमस्कार करें. हनुमान जी ने नारद मुनि से पूछा, कि ऋषि विश्वामित्र को नमस्कार क्यों न करूं? नारद मुनि ने जवाब दिया, ऋषि विश्वामित्र पहले राजा हुआ करते थे, इसलिए उन्हें ऋषियों में मत गिनो.

 

नारद जी कहने पर हनुमान जी ने ऐसा ही किया. हनुमान जी सबको नमस्कार कर चुके थे और उन्होंने विश्वामित्र को नमस्कार नहीं किया. इस बात पर ऋषि विश्वामित्र क्रोधित हो गए और उन्होंने श्री राम से कहा कि इस गलती के लिए हनुमान को मौत की सजा दि जाएं. श्री राम अपने गुरु विश्वामित्र का आदेश नहीं टाल सकते थे, इसलिए उन्होंने हनुमान को मारने का निश्चय कर लिया.

 

हनुमान जी ने नारद मुनि से इस संकट का समाधान पूछा. नारद मुनि ने कहा,  कि आप बेफिक्र होकर राम नाम का जाप करना शुरू करें. हनुमान जी ने नारद मुनि के कहे अनुसार राम नाम का जाप करना शुरू कर दिया. वो आराम से बैठकर राम नाम का जाप करने लगे. श्रीराम ने हनुमान पर अपना धनुष बाण तान दिया. साधारण तीर हनुमान जी का बाल भी बांका न कर पाएं. जब हनुमान जी पर श्री राम के तीरों का कोई असर नहीं हुआ तो उन्होंने ब्रह्माण्ड के सबसे शक्तिशाली शस्त्र ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, लेकिन राम नाम जपते हुए हनुमान पर ब्रह्मास्त्र का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा. बात को बढ़ता देख नारद मुनि ने ऋषि विश्वामित्र से हनुमान जी को क्षमा करने को कहा. जब ऋषि विश्वामित्र ने देखा की राम नाप का जाप करते हुए हनुमान को खुद श्रीराम के बाण के तीर छु भी नहीं पा रहे तो उन्होनें नारद मुनि के कहे अनुसार हनुमान जी को क्षमा कर दिया और एक उदाहरण पेश किया कि श्रीराम से बड़ा श्रीराम का नाम है.

Why is Maa Durga always riding a Lion?

Devi Durga -

शेर का मां दुर्गा का वाहन बनने की कहानी तब शुरू होती है, जब देवी पार्वती घोर तपस्या करके भगवान शिव को पति के रूप में पाने की कोशिश कर रही थी. सालों तक तप करने के बाद माता पार्वती को भोले भंडारी अपनी पत्नी के रूप में अपना लेते है. इसी बीच तपस्या की वजह से मां पार्वती का रंग काफी काला पड़ जाता था. एक दिन ऐसे ही बातचीत के दौरान भगवान शिव मां पार्वती को काली कह देते है, ये बात उन्हें पसंद नहीं आती. मां पार्वती नाराज होकर दोबारा तप करने के लिए चली जाती है.

 

माता पार्वती जब तपस्या कर रही थी, उसी समय वहां एक शेर घूमते-घूमते आ जाता है, माता को खाने की इच्छा रखने वाला शेर माता का तप पूर्ण होने की प्रतिक्षा करता है. समय बीतता जाता है और शेर इंतजार ही करता है. सालों बीत जाते है शेर को देवी का इंतजार करते-करते. जब भी वह देवी को खाने की इच्छा लेकर उनके पास जाता, तो उनके तप की तेज की वजह से वह पीछे हट जाता. कई बार कोशिशों के बावजूद भी शेर माता के नजदीक नहीं जा पाता और हार कर कोने में बैठ जाता है. माता पार्वती के कठोर तप से खुश होकर भगवान शिव प्रकट होते है और मां से मन चाहा वर मांगने को कहते है.

 

माता पार्वती कहती है, कि मुझे पहले की तरह अपना गोरा रंग वापस चाहिए. माता पार्वती के इस वर को भगवान शिव पूर्ण करते है. आशीर्वाद मिलते ही माता पार्वती नहाने के लिए चली जाती है, उनके नहाते ही उनके शरीर से एक और देवी का जन्म हो जाता है, जिनका नाम कौशिकी पड़ता है. नहाते समय उनके शरीर से काला रंग निकल जाता है और माता पार्वती का रंग पहले की तरह साफ हो जाता है. इसी वजह से माता पार्वती का नाम मां गौरी भी रखा जाता है. नहाने के कुछ देर बाद जब माता पार्वती बाहर आती है, तो उनकी नजर शेर पर पड़ती है, जो माता को खाने की प्रतिक्षा में भूखा ही एक कोने में बैठा था.

 

माता पार्वती भगवान शिव के पास जाती है और उनसे वरदान मांगती है. माता पार्वती कहती है कि हे नाथ. ये शेर सालों से मुझे भोजन के रूप में ग्रहण करने के लिए इंतजार कर रहा था, जितना तप मैंने किया है, उतना ही तप मेरे साथ इस शेर ने भी किया है. इसी वजह से आप इस शेर को वरदान के रूप में मेरी सवारी बना दीजिए. भगवान शिव ने माता पार्वती की इस बात से प्रसन्न होकर शेर को उनकी सवारी बना दी. आशीर्वाद मिलने के बाद माता शेर पर सवार हो गई और तभी से उनका नाम मां शेरावाली और मां दुर्गा पड़ गया.

Why couldn’t Kubera satisfy Lord Ganesha’s hunger?

Ganesh Aur Kuber Katha -

हिन्दू धर्म के अनुसार कुबेर धन और वैभव के देवता हैं। माना जाता है कि उनके पास ढेर सारा धन है और यह आपने सुना ही होगा कि जरूरत से अधिक पैसा व्यक्ति को अंधा बना देता है। बिलकुल ऐसा ही कुछ धन के देवता कुबेर के साथ भी हुआ। उन्हें लगने लगा कि तीनों लोकों में सबसे ज्यादा धन उन्हीं के पास है और उन्हें इस बात पर घमंड होने लगा।

 

एक दिन अपने धन का दिखावा करने के लिए धन के देवता कुबेर ने महाभोज का आयोजन किया। इस महाभोज में उन्होंने सभी देवतागण को बुलाया। कार्यक्रम का न्योता लेकर वो कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के पास भी गए और उन्हें विशेष अतिथि के रूप में आने का न्योता दिया।

 

भगवान शिव ने एक बार में कुबेर जी के घमंड को भांप लिया और फिर सोचा कि इसे सही पाठ पढ़ाना जरूरी है। यह सोचकर उन्होंने कुबेर से कहा, “कुबेर, हमें तुम्हारा न्योता स्वीकार है, लेकिन किसी जरूरी काम के कारण हम महाभोज में नहीं आ पाएंगे, किंतु तुम चिंता न करो। हमारी जगह, हमारा पुत्र गणेश तुम्हारे महाभोज में जरूर आएगा।

 

भगवान शिव की बात सुनकर कुबेर खुशी-खुशी वहां से चले गए।

 

महाभोज का दिन आ गया। सभी देवतागण कुबेर के घर पधारने लगे। भगवान श्री गणेश भी समय से कार्यक्रम में पहुंच गए। जैसे ही भोजन शुरू हुआ, भगवान गणेश ने सारा भोजन खत्म कर दिया। जब कुबेर ने बाकी मेहमानों के लिए फिर से भोजन बनवाया, तो गणपति ने फिर से सारा भोजन खा लिया। भगवान गणेश कुबेर की रसोई में रखा सारा खाना खत्म करते जा रहे थे, लेकिन उनकी भूख शांत ही नहीं हो रही थी। धीरे-धीरे करके कुबेर के पास मौजूद सभी खाने की चीजें खत्म हो गईं, तो उन्होंने भगवान गणेश से कहा, “प्रभु और खाना आने में समय लगेगा। तब तक आप बैठ जाइए।” इस पर भगवान गणेश ने कहा, “अगर तुमने मुझे अभी भोजन नहीं दिया, तो मैं तुम्हारे महल में रखी हर चीज खा जाऊंगा।”

 

इतना सुनते ही कुबेर घबरा गए और भगवान शिव के पास पहुंच गए. कुबेर देवता ने भगवान शिव को सारी आपबीती बताई, तब भगवान शिव ने कहा कि कभी भी धन का घमंड नहीं करना चाहिए, क्योंकि धन की लालसा कभी किसी का पेट नहीं भर सकती। इतना सब सुनकर कुबेर देवता ने भगवान शिव से माफी मांगी और माता पार्वती ने कुबेर जी को आटे का घोल दिया जिसको पीने से भगवान गणेश की भूख शांत हुई, कुबेर देवता को अपनी गलती का एहसास हो गया था, कुबेर जी ने भगवान गणेश के पैरों में गिर गए और उनसे माफी मांग ली और कहां कि मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूं और प्रण लेता हूं कि कभी भी धन का घमंड नहीं करूंगा.

Story About Akrura, A Great Devotee Of Lord Krishna

Shri Krishna Aur Akrur Story -

बात उस समय की है जब श्री कृष्ण का जन्म नहीं हुआ था। कंस ने अपनी मृत्यु की आकाशवाणी को सुनकर अपने पिता राजा उग्रसेन को बंदी बना लिया और खुद राजा बन बैठा. अक्रूर जी उन्हीं के दरबार में मंत्री के पद पर आसीन थे। रिश्ते में अक्रूर जी वासुदेव के भाई थे और इस नाते से वह श्री कृष्ण के काका. इतना ही नहीं अक्रूर जी को श्रीकृष्ण अपना गुरु भी मानते थे।

 

जब कंस ने नारद मुनी के मुंह से सुना कि कृष्ण वृंदावन में रह रहे हैं, तो उन्हें मारने के विचार से कंस ने अक्रूर को अपने पास बुलाया, उसने अक्रूर के हाथ निमंत्रण भेज कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम को मथुरा बुलाया. अक्रूर जी ने वृंदावन पहुंचकर श्री कृष्ण को अपना परिचय दिया और कंस के द्वारा किए जाने वाले अत्याचार के बारे में उन्हें बताया. साथ ही आकाशवाणी के बारे में भी श्रीकृष्ण को बताया कि उन्हीं के हाथों कंस का वध होगा।

 

अक्रूर जी की बात सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम उनके साथ कंस के उत्सव में शामिल होने के लिए निकल पड़े. रास्ते में अक्रूर जी ने कृष्ण और बलराम को कंस के बारे में और युद्धकला के बारे में काफी जानकारियां दी. इस वजह से श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना गुरु मान लिया था. मथुरा पहुंचने के बाद श्रीकृष्ण और कंस का मलयुद्ध हुआ जिसमें श्रीकृष्ण के द्वारा कंस का वध हुआ और मथुरा के सिंहासन पर वापस राजा उग्रसेन को बैठा दिया और अक्रूर को हस्तिनापुर भेज दिया.

 

कुछ समय के बाद कृष्ण ने अपनी द्वारका नगरी का निर्माण किया. द्वारका में अक्रूर जी पांडवों का संदेश लेकर आए, जिसमें लिखा था कि पांडवों का कौरवों के साथ युद्ध होने वाला है जिसमें उन्हें श्रीकृष्ण की सहायता चाहिए. इस पर कृष्ण ने पांडवों का साथ दिया, जिससे वो महाभारत का युद्ध जीत सके।

 

कहा जाता है कि अक्रूर जी के पास एक स्यमंतक नामक मणि थी. वह मणि सूर्य देव के द्वारा प्रकट की गई थी, स्यमंतक मणि जिस भी जगह रहती थी, वहां पर कभी भी अकाल नहीं पड़ता था। महाभारत के युद्ध के बाद अक्रूर जी श्री कृष्ण के साथ द्वारका आ गए थे. जब तक अक्रूर जी द्वारका में रहे, तब तक वहां खेतों में अच्छी फसल होती रही, लेकिन उनके जाते ही वहां अकाल पड़ गया। द्वारिकावासियों को लगा कि श्रीकृष्ण ने स्यमंतक मणि चुराई है जिससे उन्होनें कृष्ण पर चोरी का आरोप लगा दिया. मणि को वापस लाने के लिए श्री कृष्ण ने अक्रूर जी से वापस द्वारका आने का आग्रह किया और नगरवासियों के सामने स्यमंतक मणि दिखाई, जिसके बाद श्री कृष्ण पर लगा स्यमंतक मणि की चोरी का आरोप गलत साबित हुआ। वे मणि द्वारका में छोड़ अक्रूर जी ब्रह्म तत्व में लीन हो गए थे। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के दिव्य दर्शन अर्जून के बाद अक्रूर जी ने ही किए थे और उसके बाद ही उन्होनें कंस का साथ छोड़ श्रीकृष्ण का साथ दिया था.