Hindu Temples of India: Sugandha Shaktipeeth, Bangladesh

सुगंधा शक्तिपीठ मंदिर -

देवी सती के आत्मदाह की कई प्रौराणिक कथाओं के बारे में सुना होगा.. भगवान शिव के अपमान में देवी सती ने अग्नि स्नान कर लिया था.. जिसके बाद भगवान शिव देवी सती की जलती दाह को लेकर पूरे पृथ्वी के चक्कर काटे, जिस बीच भगवान विष्णु ने शिव के दुख को दूर करने के लिए देवी सती के शरीर के टुकड़े अपने सुदर्शन चक्र से कर दिए.. अब ऐसे में देवी सती के शरीर के जितने भी भाग हुए वे अलग अलग दिशाओं में जा गिरे, जिसे हम शक्ति के नाम से शक्तिपीठ कहते है.. देवी सती के शरीर के एक अंग भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में जा गिरा.. जहां सुंगधा नदी के तट के पास स्थित उग्रतारा देवी का मंदिर ही शक्तिपीठ माना जाता है. शैव धर्म में यह एक महत्वपूर्ण घटना है जिसके परिणामस्वरूप सती देवी के स्थान पर श्री पार्वती का उदय हुआ और शिव को गृहस्थश्रमी (गृह धारक) बना दिया जिससे गणपति और सुब्रह्मण्य की उत्पत्ति हुई।

 

देवी सती के शरीर के अंग 51 हुए, जिसे 51 शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता हैं, जो संस्कृत के 51 अक्षरों से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक मंदिर में शक्ति और कालभैरव के मंदिर हैं और ज्यादातर प्रत्येक मंदिर शक्ति और कालभैरव के अलग-अलग नामों से जाना गया.. कहते हैं सुंगधा या सुनंदा स्थान पर सती माता की नासिका या नाक गिरी थी. यहां की देवी सुनंदा और शिव त्र्यम्बक के नाम से प्रसिद्ध हैं, इसलिए इस पीठ को सुनंदा पीठ भी कहा जाता है.

 

अलौकिक है मंदिर की बनावट

यह मंदिर पत्थर का बना हुआ है. मंदिर की पत्थर की दीवारों पर भी देवी-देवताओं की तस्वीर ख़ूबसूरती से प्रदर्शित की गई हैं. शिव चतुर्दशी पर यहाँ मेला लगता है. इसके अलावा नवरात्र पर भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है. शिव रात्रि के समय मंदिर में विशाल आरती का आयोजन किया जाता है.. कहते है सुनंदा शक्तिपीठ का वर्णन ज्यादातर कहीं उपलब्ध नहीं कराया गया, जिस वजह से शिव और देवी पार्वती के भक्तों को मंदिर के बारे में पता नहीं है..

 

ऐसा है देवी का स्वरूप

सुनंदा शक्तिपीठ में स्थापित देवी सती की जो पुरानी मूर्ति थी, वो अब चोरी हो चुकी है. उसके स्थान पर नई मूर्ति स्थापित की गई है. प्राचीन मूर्ति अब तक अज्ञात है. वर्तमान में देवी उग्रतारा की मूर्ति है, जिन्हें सुगंध की देवी के रूप में पूजा जाता है.

 

मंदिर की प्रचलित कथा

शिकारपुर गांव में पंचानन चक्रवर्ती नाम के एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे. एक बार उनके सपने में, मां काली ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि मैं सुगंधा के गर्भ में शिलारूप में हूँ, तुम मुझे वहां से निकाल कर ले आओ और मेरी पूजा करो. पंचानन चक्रवर्ती ने ऐसा ही किया. वो सपने में आये स्थान पर गया, वहां से मूर्ति लाकर स्थापित की और पूजा करना शुरू कर दिया. इसके बाद वहां के स्थानीय लोग भी आने लगे और मां की पूजा करने लगे. इस तरह से ये  पवित्र स्थान लोकप्रिय हुआ.

Mata Mansa Devi Temple | Places of Interest

मनसा देवी मंदिर -

देवी दुर्गा के दर्शन के लिए भक्त कहां कहां नहीं पहुंचते.. नवरात्र के पावन पर्व पर मंदिरों में लाखों की तादाद देखने को मिलती है.. आज हम जिस मंदिर के बारे में बताने जा रहे है वह एक सिद्ध मंदिर है जहां पर भक्त अपनी मुरादे खुद देवी को बताने के लिए दूर-दूर से आते है.. पंचकूला में स्थित सालों पुराना सिद्ध मंदिर, जिसे माता मनसा देवी के नाम से जाना जाता है.. माता मनसा देवी का मंदिर बड़ा ही प्रभावशाली है, क्योंकि यहां भक्त यदि अपने मन की बात ना भी कहे तो भी माता मनसा देवी उसकी मनोकामना पूर्ण कर देती है, क्योंकि माता को केवल भक्त के प्रेम की लालसा होती है.. इस मंदिर की सबसे खास बात ये है कि यहां चैत्र और आश्विन मास के नवरात्रों में भव्य मेला लगता है, जिसमें लाखों की तादाद में श्रध्दालु माता मनसा देवी के दर्शन के लिए आते हैं.. यहां लोग माता से अपनी मनोकामना को पुरा करने के लिए आशिर्वाद लेते हैं.. माना जाता है कि माता मनसा देवी से मांगी गई हर मुराद माता पूरी करती है।

 

माता मनसा देवी का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि अन्य सिद्ध शक्तिपीठों का.. माता मनसा देवी के सिद्ध शक्तिपीठ पर बने मदिंर का निर्माण मनीमाजरा के राजा गोपाल सिंह ने अपनी मनोकामना पूरी होने पर लगभग पौने दो सौ साल पहले बनवाया था, मंदिर के निर्माण में चार साल लगे..

 

मंदिर की नक्काशी सफेद संगमरमर से की गई है.. मंदिर के मुख्य द्वार से ही माता की मूर्ति दिखाई देती है.. मूर्ति के आगे तीन पिंडियां हैं, जिन्हें मां का रूप ही माना जाता है, ये तीनों पिंडियां महालक्ष्मी, मनसा देवी और सरस्वती देवी के नाम से जानी जाती हैं.. मंदिर की परिक्रमा पर गणेश, हनुमान, द्वारपाल, वैष्णवी देवी, भैरव की मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित है..

 

मंदिर का रहस्य, 3 किमी लम्बी गुफा

मनसा देवी का मंदिर पहले मां सती के मंदिर के नाम से जाना जाता था.. कहा जाता है कि जिस जगह पर आज मां मनसा देवी का मंदिर है, यहां पर सती माता के मस्तक के आगे का हिस्सा गिरा था.. मनीमाजरा के राजा गोपालदास ने अपने किले से मंदिर तक एक गुफा बनवाई थी, जो लगभग 3 किलोमीटर लंबी है.. वे रोज इसी गुफा से मां सती के दर्शन के लिए अपनी रानी के साथ जाते थे। जब तक राजा दर्शन नहीं करते थे, तब तक मंदिर के कपाट नहीं खुलते थे।

 

मनसा देवी की कथा और महत्व

मनसा देवी मंदिर के साथ कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। मनसा देवी की कथा की बार करें तो यह हमे उस समय ले जाती है जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के विरुद्ध जाकर भगवान शिव से विवाह किया था। उनके विवाह के कुछ समय पश्चात दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने शिव जी को अपमानित करने के लिए उन्हें छोड़कर बाकी सभी देवी देवतायों को आमंत्रित किया। लेकिन उसके बाबजूद देवी सती उस यज्ञ में पहुच जाती है जहाँ उनको और शिव जी को आपमान क्या जाता है और अपने पति के खिलाफ अपने पिता के शब्दों को बर्दाश्त करने में सक्षम नहीं होने पर देवी सती उसी अग्नि कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दे देती है, लेकिन जब इस घटना की सूचना शिव जी को मिलती है तो वह दुखी और क्रोधित हो जाते है और वीरभद्र को पैदा करके संहार करते हुए दक्ष का वध कर देते है। उसके बाद देवी सती के मृत शरीर को लेकर तांडव करने लगते है जिससे ब्रम्हांड पर सर्वनाश का खतरा मडराने लगता है। इसी से चिंतित होकर भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के मृत शरीर के टुकड़े कर देते है जो जाकर धरती के अलग अलग हिस्सों में गिरते है। और बाद में देवी सती के शरीर के गिरे उन्हें टुकडो वाली जगहों पर उनके सम्मान में एक शक्ति पीठ का निर्माण किया जाता है। ठीक उसी प्रकार माना जाता है इस स्थान पर देवी सती का सर गिरा था जिनके सम्मान में यहाँ मनसा देवी मंदिर की स्थापना की गयी थी।

The Story Of Mahakaleshwar Ujjain

Mahakaleshwar Ujjain -

मध्यप्रदेश के उज्जयिनी के श्री महाकालेश्वर भारत में बारह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं.. महाकालेश्वर मंदिर की महिमा का विभिन्न पुराणों में विशद वर्णन किया गया है.. कालिदास से शुरू करते हुए, कई संस्कृत कवियों ने इस मंदिर को भावनात्मक रूप से समृद्ध किया है.. उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिए केंद्रीय बिंदु हुआ करता था और महाकाल को उज्जैन का विशिष्ट पीठासीन देवता माना जाता था.. समय के देवता, शिव अपने सभी वैभव में, उज्जैन में शाश्वत शासन करते हैं। महाकालेश्वर का मंदिर, इसका शिखर आसमान में चढ़ता है, आकाश के खिलाफ एक भव्य अग्रभाग, अपनी भव्यता के साथ आदिकालीन विस्मय और श्रद्धा को उजागर करता है.. भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक, महाकाल में लिंगम (स्वयं से पैदा हुआ), स्वयं के भीतर से शक्ति को प्राप्त करने के लिए माना जाता है.. महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है.. यह एक अनूठी विशेषता है, जिसे तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल 12 ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर में पाया जाता है.. महाकाल मंदिर के ऊपर गर्भगृह में ओंकारेश्वर शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है.. गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय जी के चित्र स्थापित हैं.. दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है, तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की मूर्ति केवल नागपंचमी के दिन दर्शन के लिए खुली होती है.. महाशिवरात्रि के दिन, मंदिर के पास एक विशाल मेला लगता है, और रात में पूजा होती है।

 

महाकाल मंदिर के विशेष उत्सव एवं पर्व

 

यूं तो महाकाल मंदिर में वर्षभर उत्सव का ही माहौल रहता है, लेकिन विशेष अवसरों पर यहां विशेष उत्सवों का आयोजन होता है.. श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को राजाधिराज महाकाल की विशेष सवारी निकलती है, जब महाकालेश्वर नगर भ्रमण कर नगरवासियों को दर्शन देते है.. वैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन सवारी यानि हरि विष्णु और हर शिव का मिलन होता है.. फाल्गुन कृष्ण पंचमी या षष्ठी से महाशिव रात्रि तक शिव नवरात्रि के दौरान भगवान शिव का विशेष श्रृंगार किया जाता है.. महाशिवरात्रि के दिन विशेष उत्सव होते हैं.

 

महाकाल मंदिर परिसर में स्थित अन्य मंदिर

 

महाकालेश्वर मंमिदर परिसर में और भी ऐसे मंदिर तथा देव प्रतिमाएं हैं, जो श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र हैं.. इनमें लक्ष्मी-नृसिंह मंदिर, ऋद्धि-सिद्धि गणेश, विट्ठल पंढरीनाथ मंदिर, श्रीराम दरबार मंदिर, अवंतिका देवी, चंद्रादित्येश्र्वर, मंगलनाथ, अन्नपूर्णादेवी, वाच्छायन गण्पति, औंकारेश्वर महादेव, नागचंद्रेश्वर महादेव, नागचंद्रेश्वर महादेव, त्रिविष्टापेश्वर महादेव, मां भद्रकाली मंदिर, नवग्रह मंदिर, मारुतिनंदन हनुमान, कोटितीर्थ कुंड, श्रीराम मंदिर, नीलकंठेश्वर महादेव, गोविंदेश्वर महादेव, सूर्यमुखी हनुमान, लक्ष्मीप्रदाता मोढ़ गणेश मंदिर, स्वर्णजालेश्वर महादेव, शनि मंदिर, कोटेश्वर महादेव, अनादिकल्पेश्वर महादेव, चंद्र-आदित्येश्र्वर महादेव, वृद्धकालेश्वर महादेव, सप्तऋषि मंदिर, श्री बालविजय मस्त हनुमान आदि प्रमुख है.

 

कुंड में नहाने से दूर होते हैं पाप

 

मंदिर के पास एक कुंड है, ऐसा माना जाता है की इसमें नहाने से सभी पाप धुल जाते हैं.. मान्यताओं के मुताबित उज्जैन महाकाल के प्रकट होने से जुड़ी एक कथा है, जिसमें दूषण नामक असुर से प्रांत के लोगों की रक्षा के लिए महाकाल यहां प्रकट हुए थे, फिर जब दूषण का वध करने के बाद भक्तों ने शिवजी से उज्जैन में ही रहने की प्रार्थना की तो भगवान शिव महाकाल ज्योतिर्लिंगों के रूप में प्रकट हुए.

 

सिर्फ महाकाल में देखने मिलती है भस्म आरती

 

उज्जैन को प्राचीनकाल से धार्मिक नगरी कहा गया है.. आज भी यहां दूर दूर से लोग दर्शन करने के लिए आते हैं.. भगवान महाकाल की भस्म आरती के दुर्लभ पलों को देखने का अवसर आपको यहां ही मिलेगा.. माना जाता है कि इस आरती को देखने मात्र से ही लोगों के कष्ट दीर होते हैं, इसके बिना आपके दर्शन पूरे भी नहीं होते हैं.

 

क्या है भस्म आरती?

 

भस्म को सृष्टि का सार माना जाता है, ऐसे में भगवान शिव इसे हमेशा धारण किए रहते हैं.. हर सुबह महाकाल की भस्म आरती से श्रृंगार किया जाता है और उन्हें जगाया जाता है.. सालों पहले की बात करें तो शमशान से भस्म लाने की परंपरा थी, हालांकि पिछले कुछ सालों में अब कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर की लकड़ियों को जलाकर भस्म को तैयार किया जाता है, फिर इसे कपड़े से छानने के बाद इस्तेमाल किया जाता है.. भस्म आरती के पीछे मान्यता है कि भगवान शिव श्मान के साधक हैं, इस कारण से भस्म को उनका श्रृंगार माना जाता है.. इसी के साथ कहते हैं कि ज्योतिर्लिंग पर चढ़े भस्म का प्रसाद खाने से रोग दोष से मुक्ति मिलती है.

 

क्या हैं नियम?

 

नियमों के मुताबिक, महिलाओं को आरती के समय घूंघट करना होता है, क्योंकि महिलाएं इस आरती को नहीं देख सकती हैं, इसके अलावा आरती के दौरान पुजारी भी मात्र एक धोती में आरती करते हैं.. दूसरे किसी भी तरह के कपड़ों को पहनने की मनाही है.

 

कैसे पहुंचे उज्जैन महाकालेश्वर?

 

महाकाल दर्शन के लिए आपके पास तीन यातायात हैं। इन साधनों से आप उज्जैन पहुंच सकते हैं।

 

ट्रेन- उज्जैन सभी बड़े शहरों के रेलमार्ग से जुड़ा है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों से यहां के लिए सीधी ट्रेन है।

 

एयरप्लेन- उज्जैन में एयरपोर्ट नहीं है लेकिन इसके सबसे नजदीकी एयरपोर्ट की बात करें तो इंदौर है। इंदौर से उज्जैन करीब 58 किलोमीटर है। एयरपोर्ट से उतरते ही आपको टैक्सी या बस मिलेंगी। यहां से महाकालेश्वर पहुंचने के लिए करीब 1 से 1.15 घंटे लगेंगे।

 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पौराणिक कथा

 

अवंती नाम से एक रमणीय नगरी हुआ करती थी, जो भगवान शिव को बहुत प्रिय थी.. इसी नगर में एक ज्ञानी ब्राह्मण रहते थे, जो बहुत ही बुद्धिमान और कर्मकांडी ब्राह्मण थे.. साथ ही ब्राह्मण शिव के बहुत बड़े भक्त थे.. वह हर रोज पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी आराधना किया करते थे.. ब्राह्मण का नाम वेद प्रिय था, जो हमेशा वेद के ज्ञान अर्जित करने में लगे रहते थे.. ब्राह्मण को उनके कर्मों का पूरा फल प्राप्त हुआ था.

 

तो वहीं दूसरी ओर रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक राक्षस रहता था.. इस राक्षस को ब्रह्मा जी से एक वरदान प्राप्त था, इसी वरदान के मद में वह धार्मिक व्यक्तियों पर आक्रमण किया करता था.. उसने उज्जैन के ब्राह्मणों पर आक्रमण करने का विचार बना लिया, इसी वजह से उसने अवंती नगर के ब्राह्मणों को अपनी दुष्टता से परेशान करना शुरू कर दिया.. राक्षस ब्राह्मणों को कर्मकांड करने से रोकने लगा.. राक्षस चाहता था कि सभी ब्राह्मण धर्म-कर्म का कार्य करे, लेकिन ब्राह्मणों ने उसकी इस बात को अंदेखा किया.. इसके बाद राक्षसों द्वारा उन्हें आए दिन परेशान किया जाने लगा.. राक्षसों से परेशान होकर ब्राह्मणों ने शिव शंकर से अपने रक्षा के लिए प्रार्थना की.

 

ब्राह्मणों के विनय पर भगवान शिव ने राक्षस के अत्याचार को रोकने से पहले उन्हें चेतावनी दी..  भगवान शिव की बात ना मान कर राक्षसों ने ब्राह्मणों पर हमला कर दिया.. भगवान शिव धरती फाड़कर महाकाल के रूप में प्रकट हुए.. नाराज शिव ने अपनी एक हुंकार से ही दूषण राक्षस को भस्म कर दिया और राक्षसों के अत्याचार से मुक्ति दिलाई.. भक्तों की इच्छा थी, कि भगवान शिव उसी रूप में वहीं बस जाएं.. इस मांग से अभीभूत होकर भगवान वहां विराजमान हो गए.. इसी वजह से इस जगह का नाम महाकालेश्वर पड़ा, जिसे आप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से जानते हैं.

What is the story of Omkareshwar temple?

Omkareshwar Temple -

भगवान शिव के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों मंदिरों में चौथे स्थान पर पूजे जाने वाला ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर, मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है.. यह मंदिर नर्मदा नदी के किनारे मन्धाता या शिवपुरी नामक ओम के आकार में बने प्राकृतिक टापू पर है. पुराणों में इस टापू को ओमकार पर्वत पर कहा गया है.

 

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की एक सबसे अनोखी बात यह है कि यह दो ज्योतिस्वरूप शिवलिंगों में विभक्त है, यानी दो अलग-अलग ज्योतिर्लिंगों में स्थापित है, इसलिए इनके मंदिर भी अलग-अलग हैं.. इनके नाम हैं ओमकारेश्वर और ममलेश्वर हैं.. इन दोनों मंदिरों में दर्शन करने पर ही एक ज्योतिर्लिंग की यात्रा पूरी मानी जाती है.. इसमें से एक श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा के उत्तरी तट के टापू पर है जबकि श्री ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर नर्मदा के दक्षिणी तट पर टापू से बाहर स्थित है.

 

नर्मदा के दक्षिणी तट पर स्थित श्री ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग को पुराणों में अमलेश्वर या विमलेश्वर के नाम से जाना जाता है.. नियमों और मान्यताओं के अनुसार पहले ओंकारेश्वर का दर्शन करके लौटते समय अमलेश्वर-दर्शन किया जाना चाहिए, लेकिन यात्री चाहे तो सुविधा के अनुसार पहले अमलेश्वर का दर्शन कर सकते हैं और तब नर्मदा पार करके ओमकारेश्वर जा सकते हैं.. इसमें से नर्मदा नदी के टापू पर स्थित भगवान ओमकारेश्वर को स्वयंभू ज्योतिर्लिंग माना जाता है.. ओमकारेश्वर के नाम के विषय में भी माना जाता है कि ओम के आकार वाले पर्वत पर होने के कारण इसे ओमकारेश्वर नाम दिया गया.. धर्मग्रंथों में बताया गया है कि ओमकारेश्वर और अमलेश्वर ज्योतिस्वरूप शिवलिंगों में 68 तीर्थों के देवी-देवता परिवार सहित निवास करते हैं.

 

ओम के आकार में बने इस प्राकृतिक टापू को ओमकारेश्वर तीर्थ नगरी या ओमकार-मान्धाता के नाम पर भी पहचाना जाता है.. ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शनों के लिए आने वाले सर्व-साधारण भक्तों और श्रद्धालुओं को इस बात की जानकारी नहीं होने के अभाव में किसी एक ही मंदिर में दर्शन करके लौट जाते हैं जिसकी वजह से उनकी इस ज्योतिर्लिंग की यात्रा अधूरी ही रह जाती है.. शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है, इसके अलावा श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन से पहले नर्मदा-स्नान के पावन फल का वर्णन भी विस्तार से किया गया है.

 

यहां दो ज्योतिस्वरूप शिवलिंग ओमकारेश्वर और ममलेश्वर शिवलिंगों को लेकर मान्यता है कि एक बार नारद मुनि विंध्य पर्वत पर पहुँचे, विंध्य पर्वत ने बड़े आदर-सम्मान के साथ नारद जी का स्वागत किया और कहा कि मैं सर्वगुण सम्पन्न हूं, मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है, किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है.. विंध्य पर्वत के अहंकार को देखकर नारद जी ने उनके अहंकार का नाश करने की सोची.. नारद जी ने विंध्य पर्वत को बताया कि तुम्हारे पास सब कुछ है, लेकिन मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है और उसके शिखर देवताओं के लोकों तक पहुंचे हैं और मुझे लगता है कि तुम्हारे शिखर वहां तक कभी नहीं पहुंच पाएगा.. नारद जी की बात सुनकर विन्ध्याचल को अपनी गलती का एहसास हुआ.

 

श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा के उत्तरी तट के टापू पर है जबकि श्री ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर नर्मदा के दक्षिणी तट पर टापू से बाहर स्थित है.. विंध्य पर्वत ने उसी समय निर्णय किया कि अब वह भगवान शिव की आराधना और तपस्या करेगा.. इसके बाद उसने नर्मदा नदी के किनारे जहां आज ममलेश्वर शिवलिंग स्थापित है उस स्थान पर मिट्टी का शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की कठोर तपस्या शुरू की.. कई वर्षों की कठोर तपस्या के बाद भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर विंध्य पर्वत को साक्षात दर्शन दिया.

 

भगवान शिव ने विंध्य पर्वत से वर मांगने के लिए कहा, जिसके बाद विन्ध्याचल पर्वत ने कहा कि भगवन यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो कृपया मुझे कार्य की सिद्धि करने वाली अभीष्ट बुद्धि प्रदान करें और शिवलिंग के रूप में सदा-सदा के लिए यहां विराजमान हो जायें.

 

विन्ध्यपर्वत की याचना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने वरदान दिया, उसी समय देवतागण तथा कुछ ऋषिगण भी वहाँ आ गये.. देवताओं और ऋषियों के विशेष अनुरोध पर वहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया, जिसमें से एक प्रणव लिंग ओंकारेश्वर और दूसरा पार्थिव लिंग ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए.

 

यदि पौराणिक और पारंपरिक तरीके से ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की यात्रा की जाये तो यह यात्रा मूलतः तीन दिन की मानी जाती है.. नर्मदा के दक्षिणी तट पर जो बस्ती है उसे विष्णुपुरी के नाम से जाना जाता है, जबकि ओमकारेश्वर नगरी का मूल और पौराणिक नाम ‘मान्धाता‘ ही है.. पुराणों के अनुसार सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस ओम पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं ओमकार पर्वत पर निवास करने का वरदान माँग लिया, इसीलिए उस महान राजा मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया और यह प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओमकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी.

 

चौसर-पांसे खेलने आते हैं शिव-पार्वती

 

ऐसी मान्यता है कि रोज रात में भगवान शिव और माता पार्वती इस मंदिर में आते है और यहां चौसर-पांसे खेलते हैं.. यही कारण है कि रात में मंदिर के गर्भगृह में ज्योतिर्लिंग के सामने रोज चौसर-पांसे की बिसात सजाई जाती है.. ये परंपरा मंदिर की स्थापना के समय से ही चली आ रही है.. कई बार ऐसा हुआ है कि चौसर और पांसे रात में रखे स्थान से हटकर सुबह दूसरी जगह मिलते है.. ओंकारेश्वर शिव भगवान का अकेला ऐसा मंदिर है जहां रोज गुप्त आरती होती है.. इस दौरान पुजारियों के अलावा कोई भी गर्भगृह में नहीं जा सकता.. इसकी शुरुआत रात 8:30 बजे रुद्राभिषेक से होती है.. अभिषेक के बाद पुजारी पट बंद कर शयन आरती करते हैं.. आरती के बाद पट खोले जाते हैं और चौसर-पांसे सजाकर फिर से पट बंद कर देते हैं.. साल में एक बार शिवरात्री के दिन चौसर पांसे की पूरी बिसात बदल दी जाती है, इस दिन भगवान के लिए नए चौसर-पांसे लाए जाते हैं.